कांकेर :- उत्तर बस्तर के क्षेत्र बारिश के मौसम में जलमग्न हो जाते हैं.नदी नालों में पानी का तेज बहाव रहता है. इस दौरान सबसे ज्यादा मुश्किल उन गांवों में होती है.जहां पुल पुलिया नहीं है.क्योंकि बारिश की वजह से गांव का संपर्क मुख्य मार्ग से कट जाता है.जिसके कारण ग्रामीणों की रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित होती है.ईटीवी भारत ने ऐसे ही एक गांव की तस्वीर देखी.जिसे हम अपने दर्शकों तक ला रहे हैं. इस गांव का नाम है बांसकुंड जो कि चिनार नदी के किनारे बसा हुआ है. लेकिन आजादी के 70 दशक बाद भी ग्रामीणों को चिनार नदी पार करने के लिए किसी सरकार ने एक अदद पुल नहीं दिया.
बारिश में तीन आश्रित गांवों में भी जीवन मुश्किल : बांसकुंड गांव तो पुल ना होने के कारण मजबूर है ही.साथ ही साथ इस गांव के तीन आश्रित गांवों में रहने वाले लोगों की जिंदगी भी बारिश में रुक सी जाती है. इस गांव के तीन आश्रित गांव ऊपर तोनका, नीचे तोनका और चलाचूर के 800 ग्रामीण बारिश के 3 महीने जिला मुख्यालय, ब्लॉक मुख्यालय और ग्राम पंचायत से कट जाते हैं. जिसके बाद चिनार नदी में बने एक स्टॉप डैम से ग्रामीण आवागमन करते हैं. कई ग्रामीणों का खेती नदी के पार है मजबूरन ग्रामीणों को स्टॉप डेम के पिलर्स को कूदकर रोजाना आना जाना पड़ता है.
जुगाड़ पुल से नदी करते हैं पार : ग्रामीणों ने बताया कि ऊपर तोनका, नीचे तोनका और चलाचूर तीन गांव के ग्रामीण आजादी के बाद से लगातार चिनार नदी पर पुल बनाने की मांग कर रहे हैं.लंबे संघर्ष के बाद हाटकर्रा गांव से ऊपर तोनका 4 किमी सड़क तो बनी लेकिन जिम्मेदार पुल बनाना भूल गए.यही कारण है कि ग्रामीण रोज स्टॉप डेम के 16 पिलर को कूद कर आना जाना करते हैं. खाद हो बीज हो या दैनिक उपयोग के राशन का समान. ग्रामीण कांधे पर लादकर रोजना इसी तरह 16 पिलर्स को लांघकर पार करते हैं.
खेती किसानी का काम भी कूदकर : गांव के सरपंच सगुनराम उईके के मुताबिक पुल नहीं होने के कारण तीन गांव के लोगों को परेशानी होती है.इस गांव में दशकों से पुल की मांग की गई.लेकिन अब तक नहीं बना.स्टॉप डैम के पिलर्स को कूदकर ही लोग आना जाना करते हैं. बड़े लोग तो आसानी से पुल पार कर लेते हैं.लेकिन छोटे बच्चे और महिलाएं पुल को पार नहीं कर सकते. पुल के उस तरफ हम लोगों की खेती किसानी है.खाद बीज को भी अपने कंधे में रखकर पिलर्स को कूदकर आते जाते हैं.बारिश के मौसम में सबसे ज्यादा दिक्कत होती है.क्योंकि बच्चों का स्कूल तीन महीने तक बंद हो जाता है.वहीं यदि उस पार कोई बीमार पड़ गया तो समझिए आफत आ गई.आपात स्थिति में मरीजों को अस्पताल ले जाना संभव नहीं हो पाता. गांव में ही बरसात के दिनों में इलाज किया जाता है.
बच्चों की पढ़ाई होती है प्रभावित : ग्रामीण बोहरन सिंह की माने तो इस गांव में हमें बहुत परेशानी होती है. पिलर्स को कूदकर पार करना पड़ता है. नदी के उस तरफ पर जितने स्कूल हैं उनमें बारिश के समय बच्चे नहीं जाते,क्योंकि पानी भरा रहने पर पिलर को कूदकर पार करना खतरनाक है.हम लोगों ने इसके लिए कई जगह आवेदन दिया है लेकिन पुल नहीं बना.
कूद-कूदकर लाते हैं राशन और जरुरी सामान : ग्रामीणों के मुताबिक नदी उफान पर होने से स्कूल में पढ़ाने बारिश में शिक्षक नहीं आ पाते है. ऊपर तोनका और नीचे तोनका गांव में प्राथमिक पाठशाला है. लेकिन हाईस्कूल एवं हायर सेकंडरी पढ़ने के लिए छात्रों को नदी पारकर बांसकुंड आना होता है. बच्चे भी पानी कम रहने पर इसी तरह रोज स्टॉप डेम के पिलर्स को लांघ कर स्कूल आते हैं. राशन लेने जाने में भी दिक्कत होती है. राशन लेने जब नदी के पार के लोग इस तरफ आते हैं तो उन्हें राशन लेकर जाने में परेशानी होती है.क्योंकि यदि नदी में पानी नहीं हुआ तो वो लोग नदी को पैदल पार करते हैं.लेकिन नदी में पानी ज्यादा होने पर ग्रामीण कंधे पर राशन रखकर पिलर को पार करते हैं.
16 पिलर्स पर टिकी गांव की जीवनरेखा : आपको बता दें कि स्टॉप डेम में 16 पिलर हैं.मतलब एक बार ग्रामीण आ रहे तो आना-जाना कर उन्हें 32 बार पिलर्स में कूदना पड़ेगा.अगर ग्रामीण 4 बार भी आना-जाना किए तो 128 बार उन्हें छलांग लगानी पड़ती है.ये काम जोखिम भरा है. ग्रामीण बताते है पिछले साल एक स्कूली बच्चा पिलर में कूदने के दौरान नीचे गिर गया था.गनीमत ये थी कि दूसरे ग्रामीण वहां पर मौजूद थे .इसलिए उसकी जान बच गई.इसी तरह से एक शिक्षक भी पिलर पार करते वक्त नीचे गिर गए थे.उन्हें तैरना आता था,इसलिए वो भी नदी तैरकर पार कर लिए. ग्रामीण रोशनलाल के मुताबिक उस तरफ से जो बच्चे स्कूल में आते हैं उन्हें किताबों को टांगकर कूदना पड़ता है. 16 पिलर हैं जिन्हें बच्चे कूदकर पार करते हैं.ऐसे में उन्हें काफी तकलीफ होती है.
स्टॉप डैम बना जुगाड़ पुल : चिनार नदी पर 10 साल पहले स्टॉपडैम बनाया गया था.जिसमें गेट नहीं होने से पानी नहीं रूकता था.परेशान ग्रामीणों ने जुगाड़ तरकीब निकाली.अनुपयोगी स्टॉप डैम पर बारिश के पहले बांस-बल्ली से कच्चा पुल बनाते हैं.इसी कच्चे पुल से जब तक नदी में पानी रहता है,ग्रामीण आना-जाना करते हैं.हालांकि इस साल ग्रामीणों ने कच्चा पुल नहीं बनाया है.इसी तरह छलांग लगाकर ग्रामीण आवागमन कर रहे हैं. पूरे मामले को लेकर कांकेर जिले के जिला पंचायत सीईओ हरेश मंडावी का कहना है कि ग्रामीण पुल की मांग काफी समय से कर रहे हैं. हमने शासन स्तर पर पुल का प्रस्ताव भेजा है.
मांगा पुल मिला आश्वासन : अजीब बात है जो पुल पिछले 7 दशकों में नहीं बना वो इस बार बन जाएगा.शायद यही वो आश्वासन है जिसके भरोसे ग्रामीणों ने इतने साल बिना पुल के निकाल दिए. बांसकुंड के ग्रामीण और इस गांव के आश्रित गांव के कई लोगों का बचपन जवानी की दहलीज को पार कर बुढ़ापे के दौर में आ चुका है.लेकिन मूर्ख बनने के सिवा कुछ ज्यादा ना बना. जिस नदी के किनारे पुल कई साल पहले बन जाना चाहिए था,वहां सिर्फ कागजों में काम होता रहा.सरकार अंदरूनी इलाकों में विकास का दावा करती है.लेकिन ये दावे बांसकुंड जैसे गांवों की तस्वीर देखने के बाद हवा हो जाते हैं.उम्मीद की जा रही है कि इस बार सरकारी आश्वासन सही हो और ग्रामीणों को एक अदद पुल मिल जाए.